बुधवार, 18 अप्रैल 2018

शेर 19 से 34

19
बस इतनी सी जुस्तजू (खोज)है ।
मुझे लफ्ज़ की आरजू (कामना)है ।
20
  लफ्ज़ बन सँग किताबों के हम हुए ।
   दफ़न किताबों में कुछ यूँ हम हुए ।
21
दूरियाँ नही दरमियाँ के,
                 अहसास खामोशियों के ।
सजती रही महफ़िल ,
                   बिन शमा रोशनियों के ।
22
  उतरे वीरानों में ,चैन की खातिर हम ।
  देखा वीरानों में बैचेनी बिखरी पड़ी है । 
23
मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
24
टूटता रहा ऐतवार से,
लड़ता रहा इख़्तियार से ।
खुलते रहे पर्त्-दर-परतों से, 
हारते रहे शर्त-दर-शर्तो से ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@.....
 21/3/18
डायरी 3
25
ज़माने का रिवाज , कुछ बिगड़ा बिगड़ा है ।
देख सादगी हमारी हर शख़्स उखड़ा उखड़ा है ।
    ....26
जो भागे सत्य से , वो साहित्य कैसा।
 आईना दिखाता वही , जो है जैसा।
... 27
विवेक यह सफर विकल्प से संकल्प तक का ।
लगता सारा ज़ीवन "निश्चल" सफर दो पग का ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"©...
18/4/18

डायरी 3
28
खुशी न मिली, रंज के बाजार में ।
 लुटते हैं हम ,   यूँ ही बेकार में ।
.... 29
 न सजाओ ख़्वाब वफाओ के ।
 ख़्वाब मुसाफ़िर नही सुबह के ।
....30
ज़िंदगी यूँ भी करबट बदलती है।
 दुआओं से ही दुआएँ मिलती हैं ।
....31
वक़्त बदला वक़्त ने बदलकर ।
 साथ रहा न वो साथ चलकर ।
....32
कुछ यादों के ख़ंजर चुभते यादों में ।
घनघोर निशा रोइ "निश्चल" रातों में ।
...33
अभिलाषा अंबर की धरती छूने की ।
एक धुंधली साँझ तले स्वप्न संजोने की ।
....34
आवाज़ में मेरी कोई कशिश तो नही ।
फिर भी गुनगुनाता हूँ मैं कभी कभी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
18/4/18
डायरी 3



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