बुधवार, 18 अप्रैल 2018

शेर 118 से 132

 118
लकीरें मुक़द्दार की बदलती नही ।
 लोग फिर भी तक़दीर गढ़ा करते है ।
119
मेरी यह आदतें आदत बनती गई।
शब्द जागते रहे कलम चलती रही ।
120
हम छपते रहे अखवारों में कभी कभी ।
यूँ बिकते रहे शहर शहर कभी कभी ।
121
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।
122
बाद मेरे याद रहे मेरे अल्फ़ाज़ में ।
बस यही दौलत कमाना चाहता हूँ ।
123
खुलते रहे पर्त्-दर-परतों में ।
हारते रहे शर्त-दर-शर्तो में ।
124
कुछ नुक़्स भी नायाब होते है ।
रुख़सार चाँद पर दाग होते है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
125
ज्यों ज्यों ज़ीवन की साँझ ढली ।
त्यों त्यों तुझसे मिलने चाह बड़ी ।
126
कदम बेताब मंजिल छूने को ।
जमीं बैचेन असमां होने को ।
127
वक़्त छीन रहा बहुत कुछ ।
हँसी ले दे रहा सब कुछ ।
128
तमाशा ही है आज हर जिंदगी ।
करता नही कोई किसी से बंदगी ।
129
लो टूटकर फ़लक से वो चला ।
गुमां था जिसे असमां पे चमकने का ।
130
रूह से रूह जहां मिल जाती है ।
ज़िस्म वहां ख़ुदा हो जाते है ।
131
जिंदगी कटती अपने ही तरीके से ।
हारते हम हर बार अपनो के तरीकों से ।
132
तक़दीरें ही तक़दीर तय किया करती है ।
रास्ते वही मंजिल बदल दिया करती है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@.
Blog post 18/4/18

डायरी 3



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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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