पलट उस पृष्ठ को ।
बदल जरा वक़्त को ।
मिटा उन अल्फाज़ को ।
लिखे लफ्ज़ सख़्त जो ।
छोड़कर शाख को,
वो पत्ता गिरा जो ।
उड़ न सका हवा में ,
रौंद गए कदम वो ।
बैठा है फ़िक्र में,
क्यों आज की ।
तू ही लाया था ,
कल आज को ।
गुनगुनाता है वक़्त ,
आहटें अंजाम की ।
डरता है फिर क्यों ,
तू नए आगाज़ को ।
छोड़ फ़िक्र कल की ,
जीत ले बस आज को ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
बदल जरा वक़्त को ।
मिटा उन अल्फाज़ को ।
लिखे लफ्ज़ सख़्त जो ।
छोड़कर शाख को,
वो पत्ता गिरा जो ।
उड़ न सका हवा में ,
रौंद गए कदम वो ।
बैठा है फ़िक्र में,
क्यों आज की ।
तू ही लाया था ,
कल आज को ।
गुनगुनाता है वक़्त ,
आहटें अंजाम की ।
डरता है फिर क्यों ,
तू नए आगाज़ को ।
छोड़ फ़िक्र कल की ,
जीत ले बस आज को ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
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