खर्च का हिसाब न रहा ।
तेरा इतना इख़्तियार रहा ।
सम्हालता रहा लम्हा लम्हा ,
बे-इन्तेहाँ जो इंतज़ार रहा ।
..
मिटा कर मुझे मेरे वजूद से।
देखते है मुझे बड़े ख़ुसूस से।
उजड़ा चमन अपने अंदाज से,
देखते बागवां को क्यों क़ुसूर से ।
.....
तेरी बेगुनाही से क्या फर्क पड़ता है ।
सुबूत ही हर गुनाह को गढ़ता है ।
बजह तलाश करो बेगुनाही की ,
ग़ुनाह करने से फर्क़ नही पड़ता है ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"©..
Blog post 12/2/18
डायरी 3
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