शनिवार, 21 अप्रैल 2018

मुक्तक

ख्वाहिशें न बने ऐ "विवेक" सज़ा ।
 ख्वाहिशों की हो इतनी सी बजह ।

चुराकर अहसास मेरे ,
 मुझसे अंदाज़ पूछते हैं ।
 जज़्ब कर जज़्बात मेरे ,
 मुझसे अल्फ़ाज़ पूछते हैं ।

 न देखें तासीर किरदार की ,
 तासीर किरदार की हम गढ़ें ।
 सज़ा न बने ख्वाहिशें"विवेक"
 ख्वाहिशों की बजह हम बनें ।

 गढ़ कर अपने आप को ,
 कर कुछ प्रयास तू ।
 रंग कोई तो चढ़ जाएगा,
 कहलाएगा कोरा न तू ।

 कभी अपने आप को ,
 आईने में रखना तुम ।
 खुद के अक्स से ,
 आईने में झकन तुम ।
 कहता है क्या फिर,
 अक्स तुम्हे देखकर ।
 बयां कर अल्फ़ाज़ में ,
 अपने लिखना तुम ।

 पाषाण हुए हृदय यहाँ सब ,
खो गई है यहाँ मानवता ,
 सत्य कहाँ टिकता है अब ,
 जीत रही है बस दानवता ।

 झूँठ के परदे उठते हैं ।
 सत्य के चेहरे दिखते हैं ।
 झूठ चलेगा तब तक ,
 सत्य छुपा है जब तक ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

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