ख्वाहिशें न बने ऐ "विवेक" सज़ा ।
ख्वाहिशों की हो इतनी सी बजह ।
चुराकर अहसास मेरे ,
मुझसे अंदाज़ पूछते हैं ।
जज़्ब कर जज़्बात मेरे ,
मुझसे अल्फ़ाज़ पूछते हैं ।
न देखें तासीर किरदार की ,
तासीर किरदार की हम गढ़ें ।
सज़ा न बने ख्वाहिशें"विवेक"
ख्वाहिशों की बजह हम बनें ।
गढ़ कर अपने आप को ,
कर कुछ प्रयास तू ।
रंग कोई तो चढ़ जाएगा,
कहलाएगा कोरा न तू ।
कभी अपने आप को ,
आईने में रखना तुम ।
खुद के अक्स से ,
आईने में झकन तुम ।
कहता है क्या फिर,
अक्स तुम्हे देखकर ।
बयां कर अल्फ़ाज़ में ,
अपने लिखना तुम ।
पाषाण हुए हृदय यहाँ सब ,
खो गई है यहाँ मानवता ,
सत्य कहाँ टिकता है अब ,
जीत रही है बस दानवता ।
झूँठ के परदे उठते हैं ।
सत्य के चेहरे दिखते हैं ।
झूठ चलेगा तब तक ,
सत्य छुपा है जब तक ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
ख्वाहिशों की हो इतनी सी बजह ।
चुराकर अहसास मेरे ,
मुझसे अंदाज़ पूछते हैं ।
जज़्ब कर जज़्बात मेरे ,
मुझसे अल्फ़ाज़ पूछते हैं ।
न देखें तासीर किरदार की ,
तासीर किरदार की हम गढ़ें ।
सज़ा न बने ख्वाहिशें"विवेक"
ख्वाहिशों की बजह हम बनें ।
गढ़ कर अपने आप को ,
कर कुछ प्रयास तू ।
रंग कोई तो चढ़ जाएगा,
कहलाएगा कोरा न तू ।
कभी अपने आप को ,
आईने में रखना तुम ।
खुद के अक्स से ,
आईने में झकन तुम ।
कहता है क्या फिर,
अक्स तुम्हे देखकर ।
बयां कर अल्फ़ाज़ में ,
अपने लिखना तुम ।
पाषाण हुए हृदय यहाँ सब ,
खो गई है यहाँ मानवता ,
सत्य कहाँ टिकता है अब ,
जीत रही है बस दानवता ।
झूँठ के परदे उठते हैं ।
सत्य के चेहरे दिखते हैं ।
झूठ चलेगा तब तक ,
सत्य छुपा है जब तक ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें