शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

मुक्तक कुछ ख़्याल

सूरज हुआ अस्तांचल है ।
  गगन नही कोई हलचल है ।
  साथ सितारों के चँदा भी,
 "निश्चल" चलता बोझिल है ।
   .... 
   साँझ ढले तू आजा चँदा ।
   तारों के सँग छा जा चँदा ।
   निहार कण बिखरा कर ।
   मुझको तर कर जा चँदा ।
....   निहार (ओस)

 अब दिन गया गुजर ।
  कर कल की फ़िकर ।
         डूब ले तू कान्हा में ,
         छोड़ आज का जिकर।
   .......

अपने ईस्वर को मना लें जरा ।
 भूंखे को एक निवाला दें जरा ।
 आस्था के थाल में अपने भी,
 जल जाएं दिये सेवा के जरा ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"©...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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