रविवार, 15 अप्रैल 2018

मुक्तक निग़ाह

दिल-ऐ-कुसूर न था ।
 निग़ाह-ऐ-सुरूर न था ।
 दुआओं में साथ हूँ जिसकी ,
  वा-ख़ुदा वो गैर न था ।
....

कुछ हम यूँ उनके हवाले रहे ।
निग़ाह नुक़्स निकाले न गए ।
 दुआओं के असर उस नज़्र में ,
 इल्म ताबीज़ गले डाले न गए ।
 .......
बात एक यही चुभती रही ।
निग़ाह एक वो झुकती रही ।
 तपिश न थी शबनम में कोई ,
 पर रात भर वो घुलती रही ।
....
भरते रहे अश्क़ निग़ाह मचल दामन के ,
 हौंसला दामन का यह कैसा इम्तहान था ।
रंजिश न थी कोई सितारों से आसमाँ की ,
पर सितारों को क्यूँ चाँद का गुमान था ।
....
कितनी ख़ुशी है दुनियाँ में ।
 तू डूब तो सही दुनियाँ में ।
 न खटक किसी निग़ाह में ।
 जज़्ब हो तो दिल दुनियाँ में ।
.... 
सिखाता रहा वो इश्क़ मुझे बार बार ।
 गिरता रहा मैं इश्क़ राह बार बार ।
 टूटता न था दिल उस संग की चोट से ,
 होता रहा अपनी निग़ाह से जार जार ।
.... 
जागती आँखों से ख़्वाब देखता हूँ ।
ऐ चाँद मैं तुझे बे-हिसाब देखता हूँ ।
 उतरता नही तू क्यों जमीं पर कभी,
तुझे निग़ाह-ऐ-आस- पास देखता हूँ ।
... 
निग़ाह उठी इस आशा से  ।
 देखे अंबर अभिलाषा से ।
 कुछ पूछ रही धरती जैसे ,
 अपनी प्रणय पिपासा से ।
   ..... विवेक दुबे©...

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